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आर्टिकल : वर्तमान में शिक्षा प्रणाली

वर्तमान में शिक्षा प्रणाली :

(त्वरित रूप से कुछ बदलाव आवश्यक हैं।)

हम इस बात से बिलकुल पीछे नहीं हो सकते है कि वर्तमान परिस्थिति में शिक्षा प्रणाली को लेकर सरकार और समस्त शिक्षण संस्थायें बहुत ही ज्यादा संवेदनशील हैं और द्रुतगति के साथ बदलाव लाने के प्रयास में जुटी हुई हैं और इस क्षेत्र में बहुत कार्य हो रहा है जो कि नई पीढ़ी के लिये अति आवश्यक है।
परन्तु मेरा ऐसा मानना है कि यदि समस्त शिक्षण संस्थान चाहे वो शासकीय हो या अशासकीय जो नई प्रणाली कि शिक्षा के क्षेत्र में कार्य कर रहें है उन्हे कुछ बदलाव आवश्यक रूप से लाने होंगे जिससे बच्चों को शिक्षा केवल किताबी कीड़ा न बना कर मानवतावादी व्यक्तित्व का निर्माण कर सके।

हम सब ये जानते हैं कि शिक्षा का हमारे व्यक्त्तिव निर्माण में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती है जिससे हमारे जीवन को शक्ल या आकार मिलता है, हमारे जीवन का विकास होता है परन्तु क्या वाकई में ऐसा हो रहा है। यह एक जीवंत प्रश्न भी है और यदि हो रहा है तो कितना प्रतिशत हो गया। शायद इस प्रश्न का उत्तर कोई भी न दे पाये क्यूंकी जब हम आज कि पीढ़ी को सड़कों पर बेकार देखतें है जो हमारे मन में भी प्रश्न उठना स्वाभाविक है तब लगता है कि शिक्षा प्रणाली में त्वरित रूप से बदलाव अति आवश्यक है जो बहुत बड़े न हों परन्तु संस्थान के स्तर पर छोटे-छोटे बदलाव हों जिसका में उल्लेख करूंगा जिससे हो सकता है कि बहुत सारे लोग मेरी इस बात से सहमत न हों पर जो मुझे लगता है उसका में विवरण यहाॅ करना चाहता हूॅ।

भारत की शिक्षा प्रणाली में त्वरित रूप से ये बदलाव आने आवश्यक हैं।
1. रटना / रटने वाली शिक्षा :
हम वाकई समय के साथ बहुत ज्यादा बदल चुके हैं जो कि आवश्यक भी था परन्तु हम रटने वाली आदत से छुटकारा नहीं पा सके और यही आदत हम लोगों ने नई पीढ़ी को भी लगवा दी क्यूॅकी हम उन्हे रेस में जीतते देखना चाहतें है । हम नई पीढ़ी को कुछ नया ये सकारात्मक नहीं दे रहें है बस उन्हें अन्धी दोड़ में झोंक रहें हैं । हम उनका मार्ग प्रशस्त न करके उनका जीवन एक ऐसे रास्ते में झोंक रहें है जिसमें उन्हे अन्धेरे के सिवा कुछ नहीं मिलता है जिसका परिणाम उन्हे केवल रटा-रटाया ज्ञान मिलता है, जिससे बेरोजगारी, बेकारी, और व्यर्थ का भटकाव ही मिलता है। जिसकी वजह से उनके जीवन में निराशा और कुण्ठा आती है। वे रटे रटाये ज्ञान कि वजह से असफल होते है । यदि हम इसके बारे में सोचे तो इस बात के जिम्मेदार केवल माता-पिता और शिक्षण संस्थान ही है क्यूॅकी रटने के अलावा कुछ और सिखाया ही नहीं, उन्हे सिर्फ ये सिखाया है कि उन्हे रट कर उच्च स्तर के नम्बर लाने हैं जिससे उन्हे अच्छे संस्थान में प्रवेश मिलेगा, परन्तु क्या वाकई ऐसा होता है, क्या वाकई सारे बच्चे भारत के टाॅप क्लास संस्थान में प्रवेश पा लेते हैं। मेरे हिसाब से बहुत ही कम प्रतिशत है छात्रों का जो टाप-क्लास संस्थानों में प्रवेश पाते है। मैने अपने जीवन में कई टाप-क्लास संस्थान के छात्रों को भी बेकार, बेेरोजगार घूमते देखा है और जब उनसे बात की तो जाना कि उन्हे सिर्फ रटना आता है उनमें सिद्धान्त को समझने की और स्वयं निर्णय लेने की क्षमता है ही नहीं क्यूॅॅकी उन्हे बचपन से सिखाया ही नही गया है।

– संस्थान और माता-पिता को यह समझना होगा, हमें नई पीढ़ी को वैचारिक/प्रत्ययात्मक Conceptual Learning सिखाना होगा जिससे उनमें रटने कि बजाय समझने कि प्रवृति हो सके । इससे बच्चों को विषय का ज्ञान होगा, वे सिद्धान्त को समझ सकेंगे, उनके मनोभाव में बदलाव आयेगा, उनकी स्मृति विकसित होगी और उनके निर्णय लेने की क्षमता का विकास भी होगा जिससे वे अपने जीवन के निर्णय स्वयं ले सकेंगे उन्हे किसी पर निर्भर नहीं रहना होगा। वे बदलते वक्त के साथ स्वयं के हित के निर्णय ले सकेंगे।

2. मूल्यांकन व्यवस्था:
आज के समय में ये ज्यादातर देखा गया है कि नम्बर प्राप्त होना एक बहुत बड़ी बात हो गई है और इसी के द्वारा किसी छात्र का भविष्य तय होता है। मेरे हिसाब से ये व्यवस्था केवल भारत में ही है। जिसकी वजह से छात्रों पर अतिरिक्त भार आता है जिससे उन्हे भार तले दबे हुये सा महसूस होता है और जब वे प्रतिशत लाने में सफल नहीं हो पाते तो उन्हे ताड़ना भी दी जाती है । ये कैसा सिस्टम है । इसी वजह से छात्रों को आशा से कम सफलता पाने का तमगा भी दिया जाता है Under performer भी बोला जाता है जिससे उनमें कुण्ठा होती है जो कि उनके जीवन में एक गलत अवधारणा को जन्म देती है और वो छात्र कई बार पूरी जि़्न्दगी Under performer बन कर काटता है और इसी गलत सोच कि वजह से जीवन के हर मोर्चे पर असफल होता है जिसका फायदा बुद्धिजीवी वर्ग, राजनीतिज्ञ वर्ग निजी फायदे के लिये उठाते है। आप सोचें इससे हमारे देश का वृह्द स्तर पर कितना नुकसान हो रहा है।

– मेरा ऐसा मानना है कि शालाओं में तीन घन्टे की परीक्षा का मूल्यांकन न हो कर मूल्यांकन का सिस्टम निम्न बिन्दुओं पर होना चाहिये:
1. छात्र की कक्षा में सहभागिता (Classroom Participation)
2. प्रोजेक्ट वर्क (Project Assignments)
3. व्यवहार (Individual’s Behavior)
4. नैतिकता (Morality)
5. संप्रेषण कौशल(Communication Skills)
6. नेतृत्व क्षमता (Leadership Skills)
7. पाठ्येत्तर कौशल (Extra-curricular Activities)
पर होनी चाहिये जिससे पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण होता है और नेतृत्व करने, निर्णय लेने कि क्षमता, वाकपटुता की क्षमता का विकास होता है जिसका आज के बदलते वक्त में विकसित होना अत्यंत आवश्यक है। और यदि ऐसा होता हे तो मान कर चलिये कि तब जा कर छात्र का सही रूप से मूल्यांकन हो सकेगा।

3. समस्त विषयो के प्रति एक समान व्यवहार/श्रद्धा:
वर्तमान में हम ऐसी शिक्षा व्यवस्था में चल रहे है जिसमें विज्ञान – गणित विषय को सबसे ज़्यादा अच्छा माना जाता है और छात्रों को विषय विशेष के लिये जोर दिया जाता है और बताया जाता है कि यदि विज्ञान या संबंधित विषय लोगे जो भविष्य उज्जवल होगा। जिससे कई छात्र ना चाहते हुये भी, भले ही उनका मन उस विषय में ना लगता हो वो ले लेते है जिससे छात्र असफल होते है और फिर उनको Under performer कहा जाता है। छात्रों को फिर रटाया जाता है उन्हे मशीन की तरह बना दिया जाता है और यहीं से उनकी क्षमताओं का क्षरण होने लगता है। जब छात्र नहीं कर पाता है सफल नहीं हो पाता है उसकी क्षमता उभर कर नहीं आती है तो हम अपनी गलती को ढ़ाॅपने के लिये उनसे बोलते हैं कि सबसे उॅचे दर्जे के विषय में कुछ नहीं कर पा रहा है, जिससे उनमें और भी गलत सोच और कुंठा, निराशा उत्पन्न होती है। वहीं ऐसा करके हम बिना सोचे अन्य विषय जैसे भाषा, कम्यूनिकेशन, आटर्स, पत्रकारिता आदि विषय को निम्न स्तर का मानने लगते हैं क्यूॅकी इन विषयों से डाक्टर, इंजीनीयर नहीं बनते क्यूॅकी हमारी पिछड़ी हुई जड़ मानसिकता हमें अन्य विषयों के प्रति आदर करना नहीं सिखाती और इसी वजह से हम समस्त विषयो के प्रति एक समान व्यवहार/श्रद्धा नहीं रख पाते हैं।

– हमें अपने बच्चों/छात्रों को किसी विषय विशेष में धकेलने के बजाय वो किस विषय में ज़्यादा रूची रखते हैं उस पर ध्यान देना चाहिये। अब चाहे वो फोटोग्राफी ही क्यूॅ न हो और फिर उन्हे बाज़ की तरह पर देकर उड़ने देना चाहिये उनके उस क्षेत्र में भविष्य निर्माण के मार्ग प्रशस्त करना चाहिये, उस क्षेत्र कि असीमित संभावनाओं को तलाशना चाहिये। ऐसा करके हम बच्चों में सभी विषयो के प्रति एक समान व्यवहार/श्रद्धा विकसित कर सकते हैं।

4. शिक्षकों का बेहतरीन स्तर का प्रशिक्षण:
आज ज्यादातर ऐसा देखा जाता है कि शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वालों की बाढ़ सी आ गई है ये बहुत ही अच्छी बात है और सराहनीय भी है परन्तु वर्तमान परिवेश में कितने शिक्षक हैं जो वाकई में छात्रों के भविष्य के निमार्ण में लगे हुये है और इनका प्रतिशत कितना है इसका मूल्यांकन करना आसान नहीं है। ज़्यादा ये देखा गया है कि शिक्षक ने अपने आप को व्यवसायी बना लिया है। ये भी एक तरह का वृहद् स्तर का व्यापार है। मैं इसको पूरी तरह से गलत नही मानता हॅू और ना ही नकारता हूॅ परन्तु मेरा ये मानना है कि यदि कोई व्यक्ति शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने आता है तो सबसे पहले उसे प्रशिक्षित होना आवश्यक है। यदि वर्तमान समय के हिसाब से प्रशिक्षित नहीं है तो उसे क्षेत्र में कार्य करने से पहले प्रशिक्षण लेने कि संभावनायें तलाशनी चाहिये क्यॅूकि किसी भी छात्र के भविष्य का सवाल है और सबसे उपर देश के लिये एक विषय विशेषज्ञ के विकास का मुद्दा है। शिक्षक छात्र के जीवन में माता पिता कि तरह रोल निभातें है उन्हे तैयार करने की जिम्मेदारी शिक्षक की होती है, और जब ये जिम्मेदारी किसी अप्रशिक्षित के हाथ में जाती है तो भयावह परिणाम आतें है इसिलिए मै इस बात पर जोर देता हूॅ कि हर एक व्यक्ति जो शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करे उसे कार्य करने के पहले दक्षता प्राप्त करनी चाहिये।
– संस्थानों को करना ये चाहिये कि यदि उनके द्वारा कोई शिक्षक को पढ़ाने के लिये रखा जाता है तो सबसे पहले एक निश्चित समय के लिये प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये उसके बाद उनका मूल्यांकन करके उन्हे छात्रों को पढ़ाने भेजना चाहिये। ताकी जब वे पढ़ाये तो सबसे पहले उन्हे कक्षा में घर जैसा माहौल बनाना आता हो, उन्हे छात्रों के प्रति सहानुभूति दिखाना आता हो, उन्हे छात्रों को प्रेमपूर्वक व्यवहार करना आता हो क्यूॅकि जैसा आप सिखाओगे वैसा ही छात्र सीखेगा। हर छात्र अपने शिक्षक का आईना होता है ये ध्यान रखना जरूरी है।
यदि कोई शिक्षक अपने छात्रों को मार-पीट कर पढ़ा रहा है ता इसका मतलब वो शिक्षक नहीं है या फिर उसे प्रशिक्षण नहीं दिया या या फिर वो कुंठित है और यदि ऐसा है तो वो छात्र के जीवन से खिलवाड़ कर रहा है। इसीलिये प्रत्येक संस्थान को इस बात पर जोर देना चाहिये कि वे प्रत्येक शिक्षक को प्रशिक्षण देकर पहले तैयार करें फिर कक्षाओं में पढ़ाने भेजें।

5. शिक्षा में टेक्नोलाॅजी का समन्वय:
आज के परिवेश में जैसा कि हम सब जानते हैं कि दुनिया तकनीकी क्रांती के 4-5वें चरण में कार्य कर रही है । हम इस युग में है जिसमें दुनियां तकनीकी के नये नये आयाम स्थापित कर रही है जिसमें भारत भी अग्रसर है और हमारे देश का नाम दिनों दिन उॅचाईयों को छू रहा है। ऐसी स्थिति में हम शिक्षा और तकनीकी को अलग अलग नहीं कर सकते हैं। बल्कि हमें नये आयाम को प्राप्त करने और विश्व के साथ प्रतिस्पर्धा में नई पीढ़ी को लाने के लिये शिक्षा के साथ तकनीक का समन्वय करना होगा।
हमे छात्रों को उनके बाल्यावस्था से टेक्नोलाजी के बारे में पढ़ाना होगा जिससे जब वे बड़े हों जो टेक्नोलाजी उनके लिये कोई नई चीज़ न हो वो उसके साथ ही बड़े हो ।
– भारत के सभी स्कूलों में चाहे वे शहरी हो, क्षेत्रीय हो, ग्रामीण स्तर के होें हमें खुले मन, खुले दिमाग के साथ शिक्षा और टेक्नोलाॅजी का समन्वय करके ही पढ़ाना होगा क्यॅूकि उनका भविष्य इसी टेक्नोलाजी पर निर्भर है।

6. व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक छात्र कि निगरानी:
हमें यह समझना होगा कि हर छात्र कि ग्रहण करने की क्षमता एक सी नहीं होती है। इसिलिये सभी छात्रों के लिये पद्धति एक जैसी नहीं हो सकती है। मान लीजिये एक कक्षा में 30 छात्र हैं, तो हर छात्र कि ग्रहण करने कि क्षमता हमेषा अलग ही होगी। कुछ छात्र किसी विषय को जल्दी समझ जाते है कुछ को समय लगता है।
इसलिये हमारी पद्धति ऐसी होनी चाहिये जिससे शिक्षक प्रत्येक छात्र को समय दे और अलग अलग तरह से पूर्ण निगरानी में रखे, हर ऐक छात्र का बुद्धि परीक्षण का स्तर अलग हो, उसके व्यवहार पर पूर्ण निगरानी हो।
ज़्यादातर बड़े-बड़े शिक्षण संस्थाओं में यही होता है परन्तु जहाॅ भारत का एक बड़ा वर्ग रहता है -ग्रामीण क्षेत्र, वहाॅ ऐसी कोई सुविधा नहीं है ।
– इसके लिये ग्रामीण क्षेत्रों में निगरानी रखने के लिये टेक्नोलाजी का प्रयोग किया जा सकता है ।

7. छात्रों को शिक्षा का महत्व तथा प्रयोजन/उद्धेष्य समझाना:
हमारी शिक्षा पद्धति में आज भी वही चीजे़ हैं जो पुराने ज़माने से चली आ रही है शायद जैसे उपनिवेष काल में थीं। शिक्षा मेरे हिसाब से सिर्फ इसिलिये नहीं होती कि कोई पढ़ कर बड़ा आदमी, ज़्यादा पैसे कमाने वाला ही बने परन्तु शिक्षा इसलिये होती है जिससे हम मानवतावादी बन सकें, हमारे अन्दर मनुष्य का स्वाभाव आ सके।
हमें छात्रों/बच्चों को उनके बाल्यकाल से ही जीवन में आचार-विचार, शिष्टाचार, नैतिकता और मानव मूल्यों की शिक्षा भी देनी चाहिये। हमें बच्चों को ये सिखाना चाहिये कि जीवन सिर्फ रूपयों के लिये नहीं वरन उसके आगे भी है ।
– अगर हमारी शिक्षा पद्धति में इन बातों को मान लिया जाये और गंभीरता के साथ लागू किया जाये जो मैं समझता हूॅ कि हम एक ऐसी शिक्षा पद्धति को फिर से विकसित करेंगे जो हमारे देष में पहले से थी जिसे हम भूलकर औपनिवेशक काल (Colonial Period) कि शिक्षा पद्धति में चलने लगे है। हमारी पौराणिक शिक्षा पद्धति में यह सब चीजे पहले से थी बस हमें करना ये है कि उस पद्धति को फिर से पढ़ना होगा और उसमें नवयुग की टेक्नोलाॅजी का समन्वय करते हुये लागू करना होगा।

यदि ये छोटी सी बात अगर हम कर ले तो भविष्य में हमें छात्रों के स्वभाव आचार-विचार में बहुत ज़्यादा बदलाव देखने मिलेगा और बच्चों के सोचने कि क्षमता और निर्णय लेने कि क्षमता में काफी बदलाव आयेगा। यदि हम इन छोटे-छोटे बदलाव को अपना कर संस्थानों में शुरू करवा दें तो मेरा मानना है काफी बदलाव आ सकता है और हम बहुत अच्छी शिक्षा प्रणाली के विकास में भागी हो सकते हैं।

अतुल ’राजन’ क्लौडियस
चैयरमैन -CMS-SMC