आत्मा का कोई संबंधी नहीं है, आत्मा का न भाई, न पत्नि, न पिता, न माता, न पुत्र, न सखा: मुनि श्री संभव सागर
नरसिंहपुर। पाश्र्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर कंदेली में निर्यापक मुनि श्री संभव सागर जी ससंघ विराजमान हैं मुनिवर ने ग्रीष्मकालीन वाचना के दौरान श्रावको को तत्वार्थ सूत्र का अमृतपान कराते हुये बताया कि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में सदाचरण, शील, नियम, यदि जीवन में नहीं पालता है तो नरक जायेगा। भोग भूमि में कोई त्याग व संयम नहीं रखते हैं, भोग भूमि में धर्म, व्रत, शील, आदि कुछ भी नहीं होता है हमें अपने जीवन में नियम, संयम, शील, सदाचरण का पालन अवश्य करना चाहिए। वैसे देखा गया है कि मानव अपने जीवन में कोई न कोई नियम, संयम अवश्य धारण कर सकता है। मुनियों में संयम गुण विशेष रूप से होता है। पॉचो पाप छोडऩे वाला ऐसा संयमी मुनिराज ही हो सकते हैं जब मुनिराज अपनी आत्मा में लीन हो जाते हैं तब वे वीतरागी हो जाते हैं जो हम रूप देखते हैं जो कुछ अपनी आंखों से देख रहे हैं वह शरीर कुछ नहीं जानता। आत्मा दिखलाई नहीं देती तो लोगों को आत्मा की जानकारी होगी। यह स्वअनुभूति का अनुभव है। जैसे बोलना अचेतन क्रिया है, आत्मा का कोई संबंधी नहीं है, आत्मा का न भाई, न पत्नि, न पिता, न माता, न पुत्र, न सखा, कोई नहीं होता। ये सब संबंध अच्छे लग रहे हैं वह शारीरिक संबंधों के परिणाम कहलाते हैं अच्छी वस्तु मिल गई तो संयोजन ध्यान, यदि चार दिन नहीं मिली तो विकल्प पैदा होता रहता है वर्तमान में शरीर संबंधी रोग कम देखने आ रहे हैं परंतु मानसिक व्याधि ज्यादा देखने में आ रही है। ऐसा इसलिए होता है कि आप जिस ओर दृष्टि करते हो सब दिखाई देता है। ज्ञान, रूप, आत्मा होती है बाकी सब चीजें पर की हैं। हमारी बहरिआत्मा की स्थिति है मोह के मायाजाल में बाह्य की भय में, बाह्य ही भाग रहा है। जैसे कस्तूरी के लिये मृग भटक रहा है वैसे ही मानव सांसारिक जीवन में भटक रहा है। जिस दिन आपको अंतरआत्मा का भान हो जायेगा उस दिन सारा भटकाव खत्म हो जायेगा। बाहर की किसी भी गतिविधियों का ध्यान नहीं होता है। पुराने जमान में ठण्डी हवा के लिये एक व्यक्ति बाहर बैठे -बैठे खस की चटाई सींच रहा होता है तो अंदर बैठे व्यक्ति को ठण्डी हवा मिलती है और बाहर सींचने वाले को गर्म हवा मिलती है यही बहिरआत्मा और अंतरआत्मा में फर्क है।